जयपुर। चीं-चीं कर आती और घर-आंगन में फुदकती नन्हीं सी चिड़िया गौरैया जो कभी घरों की शान हुआ करती थी, अब धीरे-धीरे कहीं खोती जा रही हैं।
कच्चे घरों की खपरैल के बीच, दीवार की दरारों, तस्वीरों के पीछे, गर्डर के कोनों, टीन-टप्परों एवं छज्जों के नीचे और छतों पर पानी के नालदों में तिनकों से बनाये हुए इनके घोंसले देखे जाते थे। इनकी चहचहाहट से वीरान घर भी आबाद और जीवंत होते रहते थे। इसी नन्हीं चिड़िया को दाना-पानी देकर देखभाल करते घर के छोटे बच्चों से लेकर बूढ़े हाथ कभी भी थकते नहीं थे। प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति, स्वतंत्रता, उल्लास और परम्परा की संवाहक रही गौरैया अब संकट में है। विकास की दौड़ में गांव-शहरों में ऊग आए सीमेंट के जंगलों और पेड़ों के स्थान पर अब बिजली एवं मोबाइल फोन के टावरों ने इस गौरैया को घरों से लुप्त सा कर दिया है। एक रिपोर्ट के अनुसार इनकी संख्या में करीब 80 प्रतिशत तक की कमी आई है।
पक्षी विशेषज्ञ एवं राजस्थान में जयपुर पुलिस मुख्यालय में अतिरिक्त निदेशक (प्रचार) डाॅ कमलेश शर्मा ने बुधवार को बताया कि सामान्य बोलचाल में जिसे चिड़िया कहा जाता है, वह हमारी गौरैया ही है। गौरैया एक छोटे आकार की चिड़िया है। इसके पंख काले या घूसर रंग के होते हैं। गौरैया की लम्बाई 14-18 सेमी के मध्य होती है। इसका सिर गोल, पूंछ छोटी एवं चोंच नुकीली पिरामिड आकार होती है। गौरैया अपना घोंसला पेड़ों, चट्टानों, घरों या इमारतों के छिद्रों में बनाना पसंद करती है। इसके प्रजनन का समय अप्रैल से अगस्त तक है, हालांकि कई जगह पूरे वर्ष इसके घोंसले देखे गये हैं। यह एक बार में चार-पांच अंडे देती है। अंडे का रंग सफेद, हल्का नीला, सफेद या हल्का रंग-सफेद होता है। ऊष्मायन अवधि 11-14 दिन है। इसके चूजे 14-16 दिनों में उड़ने लगते हैं।
उन्होंने बताया कि गौरैया किसानों की मित्र मानी जाती है। गौरैया कीटभक्षी है और यह हज़ारों वर्षों से खेतों और हमारे घर-आंगन में कीट-पतंगों, मक्खी, मच्छर, मकड़ियां, इल्लियां आदि खाकर पर्यावरण को संतुलित करती हैं। वह अपने चूजों को भी वे इल्लियां खिलाती है, जो फसल को नुकसान पहुंचाती हैं। इस मायने में गौरैया स्वस्थ पर्यावरण की जैव-सूचक है।
डॉ शर्मा बताते हैं कि अत्यधिक शहरीकरण एवं पक्के आवास के चलते गौरैया को अपना घोंसला बनाने के लिए अनुकूल स्थाल मुहैया नहीं हो पा रहा है। अब इनके लिए न तो खपरैल है और न ही टीन टप्पर। पक्के मकान भी बन चुके हैं, जिससे इनके दरवाजे गौरैया के लिए बंद हो चुके हैं। खिड़कियों और रोशनदानों पर जाली लगाए जाने के कारण इनकी पहुंच घरों के भीतर नहीं हो पा रही है जिससे ये घोंसले नहीं बना पा रही हैं। उन्होंने बताया कि दूसरी तरफ इनकी आश्रय स्थली पेड़ों एवं झाड़ियों की बेतहाशा कटाई के कारण प्रजनन के लिए उपयुक्त स्थान नहीं मिल पा रहा है। इनका अस्तित्व अब खतरे में दिखाई दे रहा है। इसके अलावा फसलों में कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से इनके मुख्य भोजन कीट-पतंगों की कमी के कारण भी ये लुप्त हो रही हैं।
विभिन्न शोधों में यह भी बताया जाता है कि मोबाइल फोन टावरों के रेडिएशन के कारण भी इनकी प्रजनन क्षमता में कमी आ रही है, और इससे लगातार इनकी संख्या कम हो रही है।
डॉ शर्मा ने बताया कि इसके लेकर आमजन में अब जागरुकता बढ़ रही है और इसके संरक्षण के लिये खुद लोगों ने प्रयास शुरु कर दिये हैं। अब पशुपक्षियों के प्रति संवेदनशील लोगों के कारण नन्हीं गौरैया के लिए घरों में लकड़ी और गत्ते के कृत्रिम घोंसले लगाने का प्रचलन बढ़ रहा है। इन घोंसलों में अब ये अपनी वंशवृद्धि भी कर रही हैं।
उन्होंने बताया कि प्राकृतिक रूप से गोरैया भारत के साथ यूरोप, अफ्रीका, एशिया, म्यांमार एवं इंडोनेशिया में आसानी से देखी जा सकती हैं। गौरैया का गौरव समूचे विश्व में है। यही वजह है कि अब तक भारत सहित 20 से अधिक देशों में गौरैया पर डाक टिकट जारी किए गए हैं। गौरैया पर यूगोस्लाविया में 1982 में पहली बार डाक टिकट जारी किया गया। भारतीय डाक विभाग ने नौ जुलाई 2010 को गौरैया पर पाँच रुपये मूल्य वर्ग का डाक टिकट जारी किया। इस डाक टिकट में एक नर एवं मादा गोरैया को दर्शाया गया है।
डॉ शर्मा ने बताया कि इस चिड़िया को हमारे देश में ही अलग-अलग बोलियों, भाषाओं, क्षेत्रों में विभिन्न नामों से जाना जाता है। इन्हें उर्दू में चिरया, सिंधी में झिरकी, पंजाब में चिरी, जम्मू और कश्मीर में चेर, पश्चिम बंगाल में चराई पाखी, ओडिशा में घरा छतिया, गुजरात में चकली, महाराष्ट्र में चिमनी, तेलगु में पिछुका, कन्नड़ में गुबाच्ची, तमिलनाडु और केरल में कुरूवी के नाम से जाना जाता है।
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